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श्रीवृन्दावन महिमामृतम् -श्यामदास
द्वितीयं शतकम्
शिशु काल से अपने कोमल करपल्लवों के द्वारा आवरण तथा आलवाल निर्माण करते हुए उसमें जल सिञ्चन कर श्रीराधा-माधव ने जो समस्त सुमनोहर वृक्ष-लतादि अति यत्न पूर्वक वर्द्धित कर विवाह दिये थे एवं जिनके नवीन नवीन कुसुमादि देखकर दोनों परिहास-वचन बोलते बोलते आनन्द प्राप्त करते हैं - हम श्री वृन्दावन के उन लता-वृक्षों को नमस्कार करते हैं।।11।।
श्री वृन्दावन में श्री हरि के भाव वश द्रवीभूत हो जाने से अन्वर्थनामधारी “द्रुम” विराजमान हैं एवं अपनी तथा दूसरे की रक्षा करने में उनका “तरु’’ नाम भी यथार्थ ही हुआ है। लता समूह ने कृष्ण-व्रत धारण कर “व्रतती” नाम सार्थक किया है, यहाँ के हरिणों ने श्री कृष्ण को ही सारातिसार जाना है, अतः “कृष्णसार” नाम को प्राप्त हुए हैं एवं श्री कृष्ण के चरणचिह्नों का मार्गण (अनुसरण) कर उन्होंने “मृग” नाम की भी सार्थकता सम्पादन की है।।12।। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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