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श्रीवृन्दावन महिमामृतम् -श्यामदास
षोेड़श शतकम्
अहो! अति महानन्ददानकारी श्रीवृन्दावन का नित्य स्मरण कर। अति प्रेमार्द्र हृदय से श्रीनवयुगलकिशोर की परिचर्या कर। अहो! कब इस दास पर युगल-कृपा दृष्टि होगी? यही कहते हुए श्रीवृन्दावन के निर्जन प्रदेश में प्रतिदिन अश्रुपात करते-करते विलपते रहो।।96।।
मैं कब श्रीदामोदर के परम कामोत्सव वन में जाऊंगा और कब सुन्दरी कामिनी प्रभृति विषय में अमोहित चित्त होऊंगा? कब मैं असत्कल्पित पथों पर न जाकर वन्यफलादिकों पर ही काल व्यतीत करूंगा एवं कब नाम ग्रहण के लिए उज्ज्वल हृदय से उस रस समुद्र युगलकिशोर का भजन करूंगा।।97।।
तुम्हारी कौन स्त्री है और कौन सा पुत्र है? बुद्धि को स्थिर करके अपनी मृत्यु के बाकी दिनों की तो गणना कर। अहो! आज ही क्यों तू अपनी मृत्यु को सन्मुख नहीं देखता है यदि देखे, तो एकमात्र श्रीवृन्दावन ही तुम्हारा परम आश्रय स्थल है।।98।। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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