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श्रीवृन्दावन महिमामृतम् -श्यामदास
त्रयोदश शतकम्
अहो! जिसके द्वारा वे श्रीराधा-कृष्ण चन्द्र महामोहन एवं उन्मद आनन्द मूर्त्ति होते हुए भी महामोहित एवं आनन्द में उन्मत्त हो उठते हैं, वही श्रीवृन्दावन मेरे आनन्दों की वृद्धि करे।।56।।
जो श्रीवृन्दावन में काष्ठ, दीवार आदि की तरह होकर वास करते हैं, उनके नेत्रों से भी अश्रुधारा प्रवाहित होती है, शरीर में स्वेद, रोमाञ्च, प्रकम्प, भूमि पर लुण्ठन, बार-बार श्वास, मूर्च्छा आदि भावों का विलास होता है, इस प्रकार की भक्ति के प्रवाह तथा अत्यद्भुत स्वानुभाव से भी उत्तम निज आनन्द यह श्रीवृन्दावन उनको प्रदान करता है।।57।। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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