वृन्दावन महिमामृत -श्यामदास पृ. 608

श्रीवृन्दावन महिमामृतम्‌ -श्यामदास

त्रयोदश शतकम्

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अरे शीघ्रं शीघ्रं सुतधन-कलत्रादि ममता
प्रताने कालोऽयं नहि वपुरिदं मृत्यनुगतम्।
समस्तालभ्यानां परमिदमलभ्यं स्वकृपया
भुवि व्यक्त वृन्दाविपिनमभिधावाऽतिहठतः।।21।।

अरे! स्त्री, पुत्र, धनादि में ममता बढ़ाने का यह समय नहीं है, यह शरीर मृत्यु के अनुगत है। समस्त दुर्लभ वस्तुओं में भी अति सुदुर्लभ यह श्रीवृन्दावन अपनी कृपा से इस पृथ्वी पर प्रगट हुआ है, इसलिये शीघ्रातिशीघ्र श्रीवृन्दावन की ओर दौड़कर चल।।21।।

अहो मन्दा वृन्दाविपिन इदमीय स्थिरचरं
चिदानन्दाकारे गुणमय धिया साधनधियः
वयन्तु श्रीराधामुरलिधर दास्यैक रस सं
पदामेतत् कन्दं द्वयमखिलवन्द्यं विवृणुमः।।22।।

अहो! मन्दमति पुरुष चिदानन्दरूप श्रीवृन्दावन की स्थावर-जंगमात्मक वस्तुओं को गुणमय (मायिक) जानकर ही साधन करते हैं, परन्तु हमें तो श्रीराधा-मुरलिधर की केवल दास्य रसमय सम्पत्ति युक्त समस्त वस्तुओं में महा स्थावर जंगमात्मक बीजद्वय समस्त का वन्दन करने योग्य ही अनुभव होता है।।22।।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

श्रीवृन्दावन महिमामृतम्‌ -श्यामदास
क्रमांक पाठ का नाम पृष्ठ संख्या
1. परिव्राजकाचार्य श्री प्रबोधानन्द सरस्वतीपाद का जीवन-चरित्र 1
2. व्रजविभूति श्री श्यामदास 33
3. परिचय 34
4. प्रथमं शतकम्‌ 46
5. द्वितीय शतकम्‌ 90
6. तृतीयं शतकम्‌ 135
7. चतुर्थं शतकम्‌ 185
8. पंचमं शतकम्‌ 235
9. पष्ठ शतकम्‌ 280
10. सप्तमं शतकम्‌ 328
11. अष्टमं शतकम्‌ 368
12. नवमं शतकम्‌ 406
13. दशमं शतकम्‌ 451
14. एकादश शतकम्‌ 500
15. द्वादश शतकम्‌ 552
16. त्रयोदश शतकम्‌ 598
17. चतुर्दश शतकम्‌ 646
18. पञ्चदश शतकम्‌ 694
19. षोड़श शतकम्‌ 745
20. सप्तदश शतकम्‌ 791
21. अंतिम पृष्ठ 907

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