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श्रीवृन्दावन महिमामृतम् -श्यामदास
त्रयोदश शतकम्
श्रीवृन्दारण्य की सौभाग्यमय दर्शन-इच्छा ही उच्चतम भावयुक्त व्रतसमूहों में दीक्षा, एवं श्रीराधिका की आराधनाओं में दीक्षा तथा प्रेमाधीश्वर की पूरी की मूल (पराकाष्ठा) है।।11।।
जिसकी उन्माद-जनक सुन्दरता मोरपुच्छ ने श्रीहरि का शिरोभूषण हो रही है, जिसके नीलकमलों की श्यामलता कोमल ज्योतिपूर्ण श्रीहरि का विग्रहरूप हो रही है जिसके पुष्पों से श्रीहरि माल्यादि धारण करके भूषित होते हैं, जिसके दिव्य उज्ज्वल धातुओं से श्रीहरि अपने देह को चित्रित करते हैं, जिसकी मनोहर गुञ्जावली से बने हुए हारों को धारण करके श्रीहरि अपनी शोभावृद्धि करते हैं, उस महाभाग्यवान् श्रीवृन्दावन का मैं भजन करता हूँ।।12।। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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