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श्रीवृन्दावन महिमामृतम् -श्यामदास
द्वादश शतकम्
यह श्री वृन्दाटवि समस्त जगत् को पूर्ण प्रेम रस के सागर में डुबाते डुबाते, महाकन्दर्प के उदित दर्प (गुमान) के कारण ब्रज ललनाओं की लज्जा नाश करते करते, सबका मन उस श्रेष्ठ लीलारस में आसक्त करते करते और समस्त श्रेष्ठत्व को नाश करते-करते स्वयं प्रकृष्ट रूप से प्रकाशित हो रही है।।82।।
मेरी प्राणेश्वरी सदा उन समस्त प्रसिद्ध दिव्य उत्तम नायिकाओं के विलासादि द्वारा भूषित हैं एवं उनके प्रसिद्ध नायकोचित दिव्यरूप ललित-स्वभाव युक्त हैं, तथा एक मात्र वशवर्त्ती प्रियतम के साथ दिव्य अनन्त विचित्र क्रीड़ा परायण हो कर इस स्वेच्छारूपिणी श्रीवृन्दाटवि पर विराजमान हैं, इसे छोड़कर और किसी में भी मेरा मन सार वस्तु नहीं जानता है।।83।। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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