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श्रीवृन्दावन महिमामृतम् -श्यामदास
द्वादश शतकम्
श्रीवृन्दावन भूमि पर रति अभिलाषिनी अवशा कोई स्वर्ण लतिका को आलिंगन करने वाला एक विचरणशील तरुण तमालतरु का मैं आश्रय ग्रहण करता हूँ।।35।।
हे राधे! श्रीवृन्दावन के गहन वन में मेरा मन रूपी रत्न गुम हो गया है, तुमने ही निश्चय ही उसे पा लिया है, अतएव मृदु मधुर हास्य द्वारा सुधा प्रदान करो- मैं तो तुम्हारा दास ही हूँ।।36।।
वह (श्रीराधा जी) जैसे मुख, चक्षु, स्तन युगल जघन, सुनाभि, पाद एवं हस्त आदि अंगों से सुशोभिता हैं, उसी प्रकार यह श्री वृन्दाटवि भी दिव्य कमल, खेलन परायण मृग, गिरि पुलिन, सुन्दर सरोवर एवं किसलयादि से शोभित हो रही है। श्रीराधा सचेष्ट मदन चंचल-स्वभाव वाली हैं और वह चारों दिशाओं से स्वर्ण लतिकाओं की प्रकृष्ट उल्लासमयी शोभा को धारण कर रही है, श्रीराधा जी सुन्दर ध्वनि करने वाले भूषणों से मण्डित हैं और यह विहंग गणों की मधुर गुञ्जार से मनोहर रूप से विराजमान हो रही है।।37।। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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