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श्रीवृन्दावन महिमामृतम् -श्यामदास
द्वादश शतकम्
इस श्रीवृन्दावन में वासी हो कर भी देह-गृहादि की ममता में आवेशित मुझको धिक्कार है। प्राण को तृप्त करने वाले लोक की आराधना का मुझे साधन प्रिय है एवं सामान्य प्रशंसा से मैं प्रफुल्लित हो उठता हूँ- मुझे शत-शत धिक्कार है!! क्योंकि लक्ष्मी एवं श्रीनारायण आदिकों को भी दुर्लभ किन्तु मेेरे हाथ में आये हुए इस महारस फलरूप नित्य रुचि कर श्रीवृन्दावन नामक वस्तु को ग्रहण करके भी भला प्रकार से आस्वादन नहीं कर पाता हूँ।।12।।
हे जीवो! मैं कुछ उपदेश सुनाता हूं, अति कृपा कर उसे श्रवण कीजिये। यदि महाश्चर्य रूप सकल पुरुषार्थ अति शीघ्र पाने की इच्छा करते हो तो असीम विचित्र शक्ति सहित स्वच्छंद भाव से क्रीड़ा परायण जो श्रीवृन्दावन विराजामन हैं, जो श्री राधा द्वारा अभय हो रहा है- उसमें एक बार गमन करो।।13।। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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