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श्रीवृन्दावन महिमामृतम् -श्यामदास
एकादश शतकम्
आहा! परम महा आनन्दमयी श्री वृन्दावन को- ‘यह सामान्य वन है’- ऐसा कह कर मत बोल, क्योंकि मेरे हृदय में तो और ही कुछ स्फुरित हो रहा है, श्रीराधा-मुरलीधर का परस्पर महा उन्नत परम मधुर जो प्रेम है वही नवीन भाव साक्षात् इस श्रीवृन्दावन रूप से प्रतिभात हो रहा है।।80।।
आहा! श्रीवृन्दारण्य में कोई मधुर अद्भुत स्वर्णचन्द्र (श्रीराधा जी) निरन्तर उदित होकर विराजमान हैं। उनकी अनन्त ज्योत्सना से दशों दिशाऐं प्लावित हो रही हैं, दोनों नित्य ही मन में चिन्तित होकर किसी एक अनिर्वचनीय रस का विस्तार कर रहे हैं। एवं तिमिरपुञ्ज उपमा युक्त आनन्द मूर्त्ति (श्री श्यामसुंदर) छिपकर बारम्बार उसका चुम्बन करते हुए किसी एक अपूर्व रस का विस्तार कर रहे हैं।।81।। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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