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श्रीवृन्दावन महिमामृतम् -श्यामदास
एकादश शतकम्
यह श्रीवृन्दावन यदि परम कृपा कर के अपनी स्वामिनी श्रीराधा का दर्शन करा दें तो दिव्य स्त्री एवं रत्नादि श्रेष्ठ विषय विष की भाँति लगते हैं, मुक्ति को थूत्कार देने की इच्छा होती है, अपने संतोष के लिये प्राप्त हुए वैकुण्ठ के वैभवादि भी कुण्ठित प्रतीत होते हैं, इससे अधिक और क्या कहूँ- अनन्त असीम धन्य गोपीरस (मधुर रस) भी आस्वादन किया जा सकता है।।47।।
जहाँ सखी गणों के सहित श्री राधाजी का घुंघराली अलकावलि युक्त श्री मुख शोभित हो रहा है, एवं श्रेष्ठ रसिक भक्तों को आनन्द देने वाले श्रीकृष्ण को चरम आनन्द दायिनी श्री राधा जहाँ आनन्दित हो रही हैं, उस श्रीवृन्दावन को सम्यक् स्मरण कर।।48।। अथवा:- सालि, श्री (विल्व), राधा (मरुवक) एवं साल के वनों से शोभित तथा, रसाल (आम), तिलक (लोध्र, केतकी) और आमोद (शतावरी) युक्त एवं तिल-पुष्पों की सुगन्धी से सुवासित श्री वृन्दावन का भली प्रकार से स्मरण कर।।48।। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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