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श्रीवृन्दावन महिमामृतम् -श्यामदास
एकादश शतकम्
हे विचित्र श्रीवृन्दावन! जब तुम्हारे विचित्र कुसुमों से प्रेयसी के लिये मैंने वेश रचना की, तब उन्होंने मुस्कराते हुए मेरी प्रार्थना के अनुसार प्रसाद रूप में जो मुझे एक चुम्बन प्रदान किया- तभी से मैं तुम्हारे आधीन हो गया हूँ।।24।।
अहो श्रीवृन्दावन! तुम ही परम धन्य हो क्योंकि तुम्हारे अतिशय सुशोभित रूप के दर्शन-कौतुक में जब श्रीराधा जी चलती हैं, तब तुम उनके पथ-पथ पर कुसुमों की वर्षा करके उन्हें आच्छादन कर देते हो एवं शुक-पिकादि के कर्ण को आनन्द देने वाले अद्भुत वाक्यों से उनकी तुम स्तुति करते हो।।25।। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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