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श्रीवृन्दावन महिमामृतम् -श्यामदास
प्रथमं शतकम्
उपनिषत् समूह (वेद) ब्रह्मानन्द को प्राप्त होकर भी तीव्र तपस्या द्वारा ईश्वर की सम्यक रूप से आराधना कर इस श्रीकृष्ण के व्रज में धेनु रूप धारण करके आनन्द लाभ करते हैं। वे दिव्य रसदानकारी श्री वृन्दावन के तृण भक्षण कर निशि दिन नित्य श्री राधा-कृष्ण के चरण कमलों के उत्तम रसास्वादन से परिपूर्ण (तृप्त) हो कर अवस्थान करते हैं।।12।।
श्री वृन्दावन-वासी स्थावर जंगम में दोष हैं - ऐसा जो कोई मुझे सुनाता है, वह क्या शोणित (तेज किये हुए) अस्त्र द्वारा मेरे सैंकड़ों टूक नहीं करता है सर्वाधीश्वर प्राण समान प्रिय वृन्दावन के एक तृण के प्रति भी जो स्वल्प द्वेषाचरण करता है, उसका फिर घोर नरक से क्या कोई उद्धार करेगा।।13।। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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