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श्रीवृन्दावन महिमामृतम् -श्यामदास
श्री प्रबोधानन्द सरस्वतीपाद का जीवन-चरित्र
श्री सरस्वती पाद से और तो कुछ उत्तर देते न बन पाया श्रीमन्महाप्रभु श्री जगन्नाथजी का प्रसाद नित्य ग्रहण करते थे - इसी बात पर ही आपत्ति उठाकर पुनः एक श्लोक लिख कर प्रभु के पास भिजवा दिया, वह श्लोक था -
“विश्वामित्र, पराशर आदि मुनिगण जो केवल वायु, जल एवं पत्ते इत्यादि खाने वाले थे, वे भी स्त्री के मनोहर मुख-कमल को देखकर मोहित हो गए थे, तब जो लोग घृत-दधि दूध युक्त शाल्य-अन्न का भोजन करते हैं, वे यदि इन्द्रियों पर निग्रह कर लें, तो चटक पक्षी भी समुद्र को लांघ सकता है; अर्थात् चटक पक्षी के लिए जिस प्रकार समुद्र का लांघना असम्भव है, उसी प्रकार घृत-दधि-दुग्ध युक्त स्निग्ध पदार्थों का भोजन करने वाले व्यक्ति के लिए भी इन्द्रियों पर काबू पाना असम्भव है।” इस श्लोक को पढ़ कर श्रीमन्महाप्रभु ने इस निष्प्रयोजन जानकर कुछ भी उत्तर नहीं दिया। किन्तु प्रभु-भक्तों से न रहा गया और उन्होंने प्रभु से गोपन करके इसका उत्तर श्री सरस्वती पाद को इस प्रकार लिख भेजा-
बलवान सिंह हाथी-शूकर आदि के मांस का भक्षण करता है, किन्तु वर्ष में एक बार ही रति करता है, परन्तु कपोत तृण-शिलाकणों को खाकर भी प्रतिदिन रति करता है। कहिए, इसका क्या कारण? |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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