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श्रीवृन्दावन महिमामृतम् -श्यामदास
दशमं शतकम्
नवीन प्रेमरस स्वभावयुक्त स्निग्ध स्वर्ण सुगौर सुन्दर देह के लावण्यपूर्ण समुद्र में चित्त-जड़ के द्वैत-भाव को विलोप करने वाली, श्रीवृन्दावनस्थित श्याम-किशोर के क्रोड़देश में असीम सौरतकला पण्डिता किसी ‘‘राधा’’ नामक किशोरज्योति की जय हो।।72।।
क्योंकि श्रीवृन्दावन-श्रीभगवान् के ऐश्वर्याश्चर्य की सीमा है, लीला माधुर्य की सीमा, प्रणयरस-मद के आस्वादन जनित वैवश्य की सीमा है तथा सौंन्दर्याश्चर्य की सीमा एवं नव्य ललित रस की श्री-चमत्कार की सीमा है, अतएव मैं उसका ही आश्रय ग्रहण करता हूँ।।73।। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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