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श्रीवृन्दावन महिमामृतम् -श्यामदास
दशमं शतकम्
व्याघ्रादि हिंसक जन्तु मुझे चीर-फाड़ कर भोजन कर जांय, और महा विकट काल सर्प काट खांए, चिकित्सा में असाध्य रोग ही ग्रस लें, अथवा समस्त लोक ही मुझे अति दुख दें, सर्दी, वर्षा, झंञ्झावात मय ऋतुओं में आश्रयहीन होकर अति उद्विग्न होते हुए तथा क्षुधा तृष्णादि अनेक असह्य पीड़ाएं क्यों न मुझे दुःख दें, तथापि श्रीवृन्दावन से एक पद भी न हटूँगा।।40।।
स्त्री जाति का मुख न देख कर, विषयी पुरुषों के साथ कभी भी वार्तालाप न करके, अतिशय पूछने पर भी किसी को अपना दीनता भाव प्रकाश ने करते हुए, किसी की आशा न रख कर, किसी के दोष न देखकर यथा-लाभ-सन्तुष्ट होकर, श्रीराधा जी की चरणकमलों के सेवारस में आविष्ट होकर इस श्रीवृन्दावन में वास कर।।41।। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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