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श्रीवृन्दावन महिमामृतम् -श्यामदास
दशमं शतकम्
श्रीराधा-कृष्ण के अनन्य भावपूर्ण होने से ही प्राप्त होने वाले दिव्य-दिव्य नन्दन वनादिकों से भी महारमणीय, सच्चिदानन्दघन ज्योतिस्वरूप दिव्यातिदिव्य श्रीवृन्दावन का मैं आश्रय ग्रहण करता हूँ।।26।।
चाहे मेरे प्राण चले जाये, तो भी स्त्रियों का संग अथवा स्त्रियों का संग करने वालों का संग न करके, एकांत में किसी सुन्दर वृक्ष के नीचे बैठकर अश्रुपूर्ण नेत्रों से अपने प्रिय हरिनाम का जप करते हुए, लोंगों के आने पर मौन धारण करके तथा नित्य ही पृथ्वी की भाँति सब कुछ सहन करते हुए कब इस श्रीराधा केलिवन में तृण से भी नीच होकर मैं वास करुँगा?।।27।। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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