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श्रीवृन्दावन महिमामृतम् -श्यामदास
अष्टमं शतकम्
अति रस के वशीभूत, द्रुत नवीन स्वर्ण एवं नील मणि की ज्योतियुक्त युगलकिशोर, सुविमल, श्रेष्ठ-भाव पूर्ण मूर्त्ति प्रकट कर श्रीवृन्दावन की निकुंजवाटिका में शोभित हो रहे हैं।।54।।
नव-नव रतिलम्पट, एक रसात्मक, गौरनील कांति, युगल का सुन्दर कालजाविलासादियुक्त नवीन रस-पुंज-शालिनी निकुंज वाटिका में निरन्तर भजन कर।।55।।
जो अपनी महामोहनकारी अंग कांति से ब्रज रमणियों के मोहन-मुख को भी विवर्ण कर देती है, एवं जिनके परम सुन्दर नख की छटा से पति सहित रति और लक्ष्मी देवी आदि भी मूर्च्छित हो जाती है, वह श्रीराधिका जी मेरे हृदय में विराजें।।56।। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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