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श्रीवृन्दावन महिमामृतम् -श्यामदास
सप्तमं शतकम्
सान्द्रानन्द-समुद्र में एक अति रसमय मणिद्वीप शोभित हो रहा है, उसके अन्दर अति चमत्कारी वैचित्र्य धाम श्रीवृन्दावन विराजितं है, हे सखे! इसी स्थान पर एकान्त-भाव से वास कर और कुछ खेद नहीं करना, क्योंकि वेदांतियो से बहुत दूर रहने वाली तथा हरि-भक्तों को भी अलम्य कोई एक अनिर्वचनीय वस्तु मिलती है।।54।।
एक दूसरे के परम आनन्द में माला हार-वृस्त्रादि टूट जाने पर प्रिय प्रीतम को परम हर्षयुक्त सखीवृन्द पुनः-पुनः उन्हें धारण कराती हैं। अति असीम काम-समुद्र युगलकिशोर बार-बार सखीगणों से हास्य करते हैं, श्रीवृन्दावन में इन रतिकला-नागर श्री युगलकिशोर का स्मरण कर।।55। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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