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श्रीवृन्दावन महिमामृतम् -श्यामदास
चतुर्थं शतकम्
जहाँ सदा काम-चंचल राधामधुपति नित्य क्रीड़ा करते हैं, जो धाम विद्यामय एवं अविद्यामय समस्त धामों के ऊपर प्रकाशित हैं, अपने माधुर्य, उज्ज्वलता आदि के द्वारा जिसने और सब धामों को पराजित कर दिया है- अहो ऐसे भौम श्रीवृन्दावन को कौन नहीं भजता? ।।50।।
जो स्वयं प्रकाश एवं शुद्धचिद्-रसात्मक है, जिसमें स्थित समस्त (स्थावर-जंगमादि भी) उसी की भाँति (स्वयं प्रकाश व शुद्धि चिद्रसघन) हैं एवं कृष्ण-प्रेम-रस समुद्र में मग्न है, जो वेदान्तियों की दृष्टि के अगोचर है, ऐसी अविचिन्त्य-महिमायुक्त इस भौम-श्रीवृन्दावन में यदि मूर्ख लोग दोषों को देखें तो उससे अन्तर्दृष्टियुक्त (हृदय के नेत्र जिनके खुल चुके है) पुरुषों की क्या हानि? ।।51।। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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