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श्रीवृन्दावन महिमामृतम् -श्यामदास
द्वितीयं शतकम्
प्रेमानन्द के उज्ज्वल-रस विशिष्ट ज्योति पूर्ण किसी एक अनिर्वचनीय समुद्र गर्भ स्थित आश्चर्य मय श्रीवृन्दावन, उसी प्रकार के ज्योतिर्मय समुद्र के साथ तादात्म्यक-भाव को प्राप्त हो कर अनेक प्रकार से मेरे निकट स्फुरित हो, एवं उसके प्रत्येक कुञ्ज में मधुराति मधुर लीला-विहारी गौर-श्याम श्री युगल किशोर मेरे मन को उस रस में आविष्ट कर दें- यही प्रार्थना है।।49।।
दूर देश में रहते हुए भी, कुविषयों में कुकर्म परायण होते हुए भी यदि कोई सुकृती एक बार भी श्रीवृन्दावन के क्षुद्र तृण की भी वन्दना करे, तो देहान्त पीछे वह उन तृणादि के प्राण स्वरूप, असीम निखिल-शक्ति-पूर्ण श्रीराधा कृष्ण की कृपा से दुर्लभ श्री हरि के चरण-कमलों को प्राप्त कर लेता है।।50।। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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