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श्रीवृन्दावन महिमामृतम् -श्यामदास
द्वितीयं शतकम्
जिनकी वेणियां झूल रही हैं जिनकी जंघा विशाल हैं, कटिदेश क्षीण हैं एवं जिनके आवृत सुन्दर मुकुल-स्तनद्वय के बीच हार शोभित हैं, जिनकी किशोर अवस्था है, जो अनेक दिव्य वसन भूषणों से सुसज्जित हैं, जो स्निग्ध कुंकुमवत् गौरांगिणी एवं रसमयी हैं- उन श्री राधाजी की किंकरी वृन्द का स्मरण करो।।22।।
आहा! यह कैसे पुण्यों की शेष परिणति है? आहा! यह क्या भगवान की आश्चर्यमय करुणा एवं उदारता की लीला स्फुरित हो रही है? आहा! कैसा अद्भुत लाभ ही है! अथवा यह आश्चर्य का कुछ विषय नहीं, क्योंकि जो अति उत्कृष्ट वस्तु है एवं जिसमें लक्ष्मी, ब्रह्मा, शिवादि देवगण भी मोहित हो जाते हैं वह भगवान् का स्वकीय सहज गुण ही श्रीवृन्दावन रूप में पृथ्वी पर प्रादुर्भूत हुआ है!! ।।23।। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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