शंकरजी- हे पुत्र, मैं तो श्रीबृंदाबन जाय रह्यौ हूँ।
आसुरिजी- भगवन्, वृन्दावने किं कार्यमस्ति?
(हे स्वामिन् बृंदाबन में ऐसौ कहा कार्य है?)
शंकरजी- लक्ष्यादिदुर्लभतादृशक्रीडादर्शनार्थं वैकुण्ठदिलोकवन्द्यं श्रीवृन्दावनं गच्छामि।
(हे वत्स, परम प्रेममयी श्रीब्रजगोपीन के संग श्रीआनंदकंद ब्रजचंद श्रीकृष्णचंद्र आज महारास करैंगे सो महालक्ष्मी आदि कूँ हू दुर्लभ वो क्रीड़ा देखिबें के ताँई बैकुंठादि लोकन के हू बंदनीय श्रीबृंदाबन धाम कूँ जाय रह्यौ हूँ।)
आसुरिजी- प्रभो, तौ कहा श्रीबृंदाबन बैकुंठ ते हू उत्कृष्ट है?
शंकरजी- हाँ, पुत्र! बैकुंठ तो हू श्रेष्ठ है।
आसुरिजी- तौ स्वामिन्, कहा ऐसे श्रीबृंदाबन के दरसन कूँ मैं हूँ आप के संग चलि सकूँ हूँ?
शंकरजी- हे पुत्र, तुम्हारे मन में स्यामसुंदर के दरसन की अत्यंत तीब्र अभिलाषा होय तौ अवस्य चलौ। कारन, तीब्र अभिलाषा स्यामसुंदर की कृपा ते ही होय है और सर्बबेदसार श्रीब्रजराजकुमार कौ कृपापात्र होयबे सौं ही बृंदाबन के दरसन है सकैं हैं।
(दोनूँन कौ बृंदाबन कौं प्रस्थान)
आसुरिजी- हे स्वामिन्! जा श्रीबृंदाबन की ओर हम चलि रहे हैं, वाकौ स्वरूप प्राकृत जगत के समान है, कै कछु बिलच्छन है?
शंकरजी- हे पुत्र, यह श्रीबृंदाबन पृथ्वी कौ तिलक है अर्थात् प्राकृत नहीं है।
आसुरिजी- प्रभो, यह देखिबे में तौ प्राकृत के ही समान दीखे है।