- (श्रीकृष्ण-प्रवचन)
श्रीकृष्ण- अहा, यह ब्रज बैकुंठ हू सौं उत्कृष्ट तथा मेरे निज धाम गोलोक हू सौं अति श्रेष्ठ सौंदर्यमय सोभा कूँ प्राप्त है रह्यौ है। यामें मेरी तनी ममता क्यों है याकौ हू उत्तर थोरे से सब्दन में यह है कि ‘जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी।’ अस्तु यह मेरी जन्मभूमि है।
संसार में तौ मैं पूज्यौ हूँ, किंतु या ब्रज में तौ मैं ही पुजारी बन्यौ हूँ और गोपी-गोप गैयान की मैंने स्वयं ही पूजा करी है। वास्तव में या ब्रज कौ-सौ बिलच्छन प्रेम कहूँ देखिबे में नहीं आयौ।
संक्षिप्त उदाहरण में मैया जसोदा दूध पिबायबे के समय म रे मुख सौं तौ दूध कौ कटोरौ लगाय देय है और ऊपर सौं थप्पर की ताड़ना दैकैं कहै है ‘अरे कन्हैया! कै तौ या सबरे दूध कूँ पी जैयो, नहीं तौ दारीके! तेरी चुटिया छोटी-सी रहि जायगी। धन्य है या प्रेम कूँ! या प्रेम-डोर में बँधि कै फिर मेरौ मन छूटिबे कूँ नहीं करै है।’
(रसिया)
- कैसैहुँ छूटै नाहिं छाटायौ रसिया बँध्यौ प्रेम की डोर,
- ऐसी प्रेममई ब्रजछटा घटा लखि नाचि उठै मन मोर।
- मन मो स्वच्छंद फँस्यौ गोपिन के फंद,
- कोई कहै ब्रज चंद, कोई आनँद कौ कंद।