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मेरे तो गिरधर गोपाल -स्वामी रामसुखदास
15. अनिर्वचनीय प्रेम
‘बोध से पहले का द्वैत मोह में डाल सकता है, पर बोध हो जाने पर भक्ति के लिये कल्पित अर्थात् स्वीकृत द्वैत अद्वैत से भी अधिक सुन्दर होता है।’ कारण कि बोध से पहले का भेद अहम् के कारण होता है और बोध के बाद का (प्रेम की वृद्धि के लिये होने वाला) भेद अहम् का नाश होने पर होता है। जैसे संसार में ‘किसी वस्तु का ज्ञान होने पर ज्ञान बढ़ता नहीं, प्रत्युत अज्ञान मिट जाता है, ऐसे ही ज्ञान मार्ग में स्वरूप का ज्ञान होने पर अज्ञान को मिटाकर ज्ञान खुद भी शान्त हो जाता है और स्व-स्वरूप स्वतः ज्यों-का-त्यों रह जाता है। इसलिये ज्ञानमार्ग में अखण्ड, शान्त एकरस आनन्द मिलता है। परन्तु जैसे संसार में किसी वस्तु में आसक्ति होने पर फिर आसक्ति बढ़ती ही रहती है-‘जिमि प्रतिलाभ लोभ अधिकोई’, ऐसे ही भक्ति मार्ग में भगवान् में प्रेम होने पर फिर वह प्रेम बढ़ता ही रहता है। इसलिये भक्तिमार्ग में अनन्त, प्रतिक्षण वर्धमान आनन्द मिलता है। तात्पर्य यह हुआ कि आकर्षण में जो आनन्द है, वह ज्ञान में नहीं है। सांसारिक वस्तु का ज्ञान तो बाँधता है, पर स्वरूप का ज्ञान मुक्त करता है। इसी तरह सांसारिक वस्तु का आकर्षण तो अपार दुःख देता है, पर भगवान् का आकर्षण अनन्त आनन्द देता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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