मेरे तो गिरधर गोपाल -रामसुखदास पृ. 90

मेरे तो गिरधर गोपाल -स्वामी रामसुखदास

13. अलौकिक प्रेम

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विरह का तीव्र ताप जन्म-मरण के मूल कारण गुणसंग (मूल अज्ञान)-को ही जला देता है। जो गोपियाँ वंशीवादन सुनकर भगवान् के पास चली गयी थीं, उनका वह अनादि काल काक गुणसंग नष्ट नहीं हुआ; क्योंकि उनको वियोगजन्य तीव्र ताप नहीं हुआ। परन्तु जिनको वियोगजन्य तीव्र ताप हुआ, उनके लिये अनादिकाल के गुणसंगहित सम्पूर्ण जगत् की निवृत्ति हो गयी और वे सबसे पहले भगवान् से जा मिलीं। विरह के तीव्र ताप से उनका शरीर छूट गया और ध्यान जनित आनन्द से वे भगवान् से अभिन्न हो गयीं। वे भगवान् से बाहर न मिलकर भीतर से ही मिल गयीं, जो कि वास्तविक (सर्वथा) मिलन है।

यद्यपि श्रीकृष्ण के प्रति उन गोपियों की जारबुद्धि थी अर्थात् उनकी दृष्टि परमपति भगवान् के शरीर की सुन्दरता की तरफ थी तो भी वे भगवान् को प्राप्त हो गयीं- ‘तमेव परमात्मानं जारबुद्ध्यापि संगताः’। जारबुद्धि होने पर भी गोपियों में अपने सुख की इच्छा (काम) लेशमात्र भी नहीं है। अगर उनमें अपने सुख की इच्छा होती तो वे अपने शरीर को सजाकर भगवान् के पास जातीं। यहाँ ‘जारबुद्धि’ शब्द इसलिये दिया है कि गोपियों का विवाह तो दूसरे के साथ हुआ था, पर उनका प्रेम श्रीकृष्ण में था। उनका गुणमय शरीर ही नहीं रहा, फिर भोगबुद्धि कैसे रहेगी? भोगबुद्धि के रहने का स्थान ही नहीं रहा, केवल परमात्मा ही रहे। गोपियों में यह विलक्षणता भगवान् की दिव्याति दिव्य वस्तुशक्ति (स्वरूप शक्ति)-से आयी है, अपनी भावशक्ति से नहीं। भगवान् की वस्तु शक्ति से गोपियों की जारबुद्धि नष्ट हो गयी। जैसे अग्नि से सम्बन्ध होने पर सभी वस्तुएँ (अग्नि की वस्तुशक्ति से) अग्निरूप ही हो जाती हैं, ऐसे ही भक्त भगवान् के साथ, काम, द्वेष, भय, स्नेह आदि किसी भी भाव से सम्बन्ध जोडे़, वह (भगवान् की वस्तुशक्ति से) भगवत्स्वरूप ही हो जाता है।[1] इसमें भक्त का भाव, उसका प्रयास काम नहीं करता, प्रत्युत भगवान् की दिव्यातिदिव्य स्वरूप शक्ति काम करती है। इसका कारण यह है कि भगवान् जीव के कल्याण के लिये ही प्रकट होते हैं-‘नृणां निःश्रेयसार्थाय व्यक्तिर्भगवतो नृप’ [2]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. कामाद् द्वेषाद् भयात् स्नेहाद् तथा भक्त्येश्वरे मनः।
    आवेश्य तदघं हित्वा बहवस्तद्गतिं गताः।।
    गोप्यः कामाद् भयात् कंसो द्वेषाच्चैद्यादयो नृपाः।
    सम्बन्धाद् वृष्णयः स्नेहाद् यूयं भक्त्या वयं विभो।।(श्रीमद्0 7/1/29-30)

  2. (श्रीमद्0 10/29/14)।

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