मेरे तो गिरधर गोपाल -रामसुखदास पृ. 81

मेरे तो गिरधर गोपाल -स्वामी रामसुखदास

12. अक्रियता से परमात्म प्राप्ति

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उपराम होने का तात्पर्य है कि राग-द्वेष, हर्ष-शोक, सुख-दुःख आदि द्वन्द न हों। जैसे रास्ते में चल रहे हैं तो कहीं पत्थर पड़ा है, कहीं लकड़ी पड़ी है, कहीं कागज पड़ा है, पर अपना उससे कोई मतलब नहीं होता, ऐसे ही किसी भी क्रिया और पदार्थ से अपना कोई मतलब नहीं रहे- ‘नैव तस्य कृतेनार्थो नाकृतेनेह कश्चन’।[1] उनसे तटस्थ रहे। तटस्थ रहना भी एक विद्या है। साधक तटस्थ रहते हुए सब काम करे तो वह संसार से असंग हो जाता है। संसार में लाभ हो, हानि हो, आदर हो, निरादर हो, सुख हो, दुःख हो, प्रशंसा हो, निन्दा हो, उसमें तटस्थ रहे तो परमात्मा की प्राप्ति हो जाती है। अगर वह उसमें राग-द्वेष, हर्ष-शोक, सुख-दुःख कर लेगा तो भोग होगा, योग नहीं। भोगी का कल्याण नहीं होता। इसलिये तुलसीदास जी महाराज ने कहा है-

 
तुलसी ममता राम सों, समता सब संसार ।
राग न रोष न दोष दुख, दास भए भव पार ।।[2]

गीता में आया है-

 
आरुरुक्षोर्मुनेर्योगं कर्म कारणमुच्यते ।
योगारूढस्य तस्यैव शमः कारणमुच्यते ।।[3]

‘जो योग (समता)- में आरूढ़ होना चाहता है, ऐसे मननशील योगी के लिये कर्तव्य-कर्म करना कारण कहा गया है और उसी योगारूढ मनुष्य का शम (शान्ति) परमात्मप्राप्ति में कारण कहा गया है।’

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. गीता 3। 18
  2. दोहावली 94
  3. गीता 6। 3

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