मेरे तो गिरधर गोपाल -रामसुखदास पृ. 66

मेरे तो गिरधर गोपाल -स्वामी रामसुखदास

9. साधक कौन?

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शास्त्र में आता है कि देव होकर देव का भजन करना चाहिये- ‘देवो भूत्वा येजेद्देवम्’। इसलिये अव्यक्त होकर ही अव्यक्त परमात्मा का भजन करना चाहिये। शरीर तो क्षण-प्रतिक्षण बदलता है, पर साधक क्षण-प्रतिक्षण बदलने वाला साधक थोड़े ही है! क्षण-प्रतिक्षण बदलने वाला मुक्त? नित्य कैसे होगा? नित्य कैसे होगा? स्वरूप का विनाश कोई कर सकता ही नहीं- ‘विनाशमव्ययस्यास्य न कश्चित्कर्तुमर्हति’[1], पर शरीर नष्ट हुए बिना रहता ही नहीं। जो अविनाशी होता है, वही मुक्त होता है। विनाशी मुक्त कैसे होगा? बन्धन का वहम (मोह) मिट जाय-इसको मुक्ति कहते हैं। इसलिये एक बार मोह मिटने पर पुनः मोह नहीं होता- ‘यज्ज्ञात्वा न पुनर्मोहम्’।[2] कारण कि मूल में मोह है नहीं। जो वास्तव में है नहीं, वही मिटता है। जो है, वह मिटता ही नहीं। सत् का अभाव नहीं होता और जिसका अभाव होता है, वह सत् नहीं होता, प्रत्युत असत् होता है-

 
नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः ।[3]

शरीर तो भोगायतन है। जैसे रसोईघर भोजन करने का स्थान है, ऐसे ही शरीर सुख-दुःख भोगने का स्थान है। सुख-दुःख भोगने वाला शरीर नहीं होता। भोगने का स्थान और होता है, भोगने वाला और होता है। शरीर तो ऊपर का चोला है। हम लाल, काला, सफेद आदि कैसा ही कपड़ा पहनें, वह स्वरूप थोड़े ही होता है! ऐसे ही स्त्री-पुरुष ऊपर का चोला है। स्वरूप न स्त्री है, न पुरुष है, न नपुंसक है। परमात्मा, प्रकृति और जीव-ये तीनों ही अलिंग हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. गीता 2। 17
  2. गीता 4। 35
  3. गीता 2। 16

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