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मेरे तो गिरधर गोपाल -स्वामी रामसुखदास
9. साधक कौन?
भगवान् ने ज्ञानमार्गी को ‘सर्ववित्’ (सर्वज्ञ) भी नहीं कहा, प्रत्युत भक्त को ही ‘सर्ववित्’ कहा है- ‘स सर्वविद्भजति मां सर्वभावेन भारत’।[1] गोस्वामी जी महाराज ने कहा है- भक्ति के बिना भीतर का सूक्ष्म मल (अहम्) मिटता नहीं। वह मल मुक्ति में तो बाधक नहीं होता, पर दार्शनिकों और उनके दर्शनों में मतभेद पैदा करता है। जब वह सूक्ष्म मल मिट जाता है, तब मतभेद नहीं रहता। इसलिये भक्त ही वास्तविक ज्ञानी है। शरीर हमारा स्वरूप नहीं है। शरीर पृथ्वी पर ही (माँ के पेट में) बनता है, पृथ्वी पर ही घूमता-फिरता है और मरकर पृथ्वी में ही लीन हो जाता है। इसकी तीन गतियाँ बतायी गयी हैं- या तो इसकी भस्म हो जायगी, या मिट्टी हो जायगी, या विष्ठा हो जायगी। इसको जला देंगे तो भस्म बन जायगी, पृथ्वी में गाड़ देंगे तो मिट्टी बन जायगी और जानवर खा लेंगे तो विष्ठा बन जायगी। इसलिये शरीर की मुख्यता नहीं है, प्रत्युत अव्यक्त स्वरूप की मुख्यता है- यह देह है पोला घड़ा बनता बिगड़ता है सदा ।।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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