मेरे तो गिरधर गोपाल -रामसुखदास पृ. 35

मेरे तो गिरधर गोपाल -स्वामी रामसुखदास

5. सच्ची आस्तिकता

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संसार की स्वतन्त्र सत्ता नहीं है। उसको जीव ने ही अहंता-ममता-कामना के कारण स्वतन्त्र सत्ता दी है। जब तक साधक में अहंता-ममता-कामना रहती है, तब तक उसको यह मानना चाहिये कि परमात्मा में संसार है और संसार में परमात्मा है। परन्तु जब उसकी अहंता-ममता-कामना मिट जायगी, तब उसकी दृष्टि में न संसार में परमात्मा रहेंगे, न परमात्मा में संसार रहेगा, प्रत्युत परमात्मा-ही-परमात्मा रहेंगे। परमात्मा में संसार को देखना अथवा संसार में परमात्मा को देखना अधूरी आस्तिकता है। परन्तु केवल परमात्मा को ही देखना पूरी आस्तिकता है।

भगवान ने कहा है- ‘ममैवांशो जीवलोके’।[1] भगवान का अंश होने के कारण जीव का सम्बन्ध केवल भगवान के साथ है, प्रकृति के साथ बिलकुल नहीं है। इसलिये जड़-चेतन का ठीक-ठीक विवेक करना साधक के लिये बहुत आवश्यक है। साधक को यह जानना चाहिये कि हमारा विभाग ही अलग है। हम चेतन-विभाग में हैं।

जड़-विभाग से हमारा किंचिन्मात्र भी सम्बन्ध नहीं है। सम्पूर्ण पदार्थ और क्रियाएँ जड़-विभाग में हैं। चेतन-विभाग में न पदार्थ है, न क्रिया। वास्तव में पदार्थ और क्रिया की सत्ता ही नहीं है। इसलिये साधक को पदार्थ और क्रिया से रहित होना नहीं है, प्रत्युत वह स्वतः इनसे रहित है। साधक अव्यक्त (निराकार) और अक्रियरूप है। मात्र ‘करना’ प्रकृति का और ‘न करना’ स्वयं का होता है। परमात्मा तत्त्व ज्यों-का-त्यों विद्यमान है, उसके लिये कुछ न करने की जरूरत है। करने का आश्रय प्रकृति का आश्रय है। वह छोड़ दिया तो तत्त्व ज्यों-का-त्यों रहा। तत्त्व में न पदार्थ है, न क्रिया है, प्रत्युत केवल विश्राम है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. गीता 15। 7

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