गोपी गीत -करपात्री महाराज पृ. 84

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गोपी गीत -करपात्री महाराज

गोपी गीत 2

हे श्यामसुन्दर! आप कर्ता हैं, ‘स्वतन्त्रः कर्ता क्रियायां स्वातन्त्र्येण विवक्षितः अर्थः’ जो क्रिया में स्वातन्त्र्येण विवक्षित है वही कर्ता है। आप पूर्णतः स्वतन्त्र हैं अतः आपमें स्वभाव-वैपरीत्य नहीं होना चाहिए। आप तो सुरतनाथ-शब्द, स्पर्श, रूप, रस एवं गन्धात्मक सम्पूर्ण सम्भोग के प्रेरक एवं दाता हैं, न कि छेदक; निश्चय ही, आप द्वारा सम्पूर्ण सम्भोग की प्राप्ति ही होनी चाहिए। वस्तुतः गोपांगनारूप श्रुतियाँ उपनिषद् के सिद्धान्तों को उपनिषद् की भाषा में ही कर रही हैं। भगवान् ही सम्पूर्ण कर्मफल-दाता हैं। अतः सुरतनाथ हैं।

श्रुति का कथन है, ‘तदैक्षत एकोऽहम् बहुस्याम्’ अर्थात् परमात्मा ने ईक्षण किया कि एक मैं बहुत हो जाऊँ। ईक्षण एवं अहं का यह उल्लेख अहं तत्त्व एवं महत् तत्त्व का द्योतक है। कार्य के निर्माण हेतु ज्ञान एवं अहंकार दोनों की ही आवश्यकता होती है। समष्टि-तत्त्व को बुद्धयारूढ़ करने के लिए प्रथम व्यष्टितत्त्व का ही अवलम्बन करना पड़ता हैं श्रुति का कथन है, ‘स एकाकी न रेमे’ अर्थात् एकाकी होने पर रमण, आनन्द नहीं होता। यही कारण है कि प्रतयक्ष वयष्टि जाग्रत् अवस्था एवं स्थूल शरीराभिमानी विश्व में समष्टि स्थूल प्रपन्चाभिमानी वैश्वानर की एवं स्वप्नावस्था तथा सूक्ष्म शरीराभिमानी प्राज्ञ में समष्टि अज्ञान-रूप कारण शरीराभिमानी कारण-ब्रह्मरूप अव्यक्त की दृष्टि कही गयी है। इससे विपरीत विराट् में विश्व-दृष्टि नहीं कही गयी क्योंकि समष्टि अप्रत्यक्ष है। जैसे सवल्प परिमाण वाले दीप्तिमान् अग्नि को देखकर अखण्ड ब्रह्माण्ड व्यापक दीप्तिमान् अग्नि की कल्पना की जाती है वैसे ही अनुभूत व्यष्टि अज्ञान, ज्ञान तथा अहंकार से समष्टि अज्ञान, महत्तत्त्व एवं अहंतत्त्व का भी बुद्धि में आरोहण होता है। समस्त तत्त्व क्रमशः परमात्मा से ही उत्पन्न होते हैं और परमात्मा में ही लीन भी हो जाते हैं।

सुषुप्ति में भी प्रपन्च का लय प्रतीत होता है। ‘सन्ने ग्रदिन्द्रियगणेऽहमि च प्रसुप्ते’[1] सुषुप्ति-अवस्था में रहने वाला आत्मा ही ब्रह्म है। ‘यथा ब्रह्माण्डे तथा पिण्डे’ जो समष्टि ब्रह्माण्ड में होता है वही व्यष्टि पिण्ड में भी होता है। ‘मम योनिर्महद्ब्रह्म तस्मिन् गर्भ दधाम्यहम्। संभव सर्वभूतानां ततो भवति भारत।।’[2] भगवान् ने अपनी जाया, सत-तम-रज की साम्यावस्था प्रकृतिरूप योनि में गर्भाधान किया; अचेतन प्रकृति चिदाभास से युक्त होकर चेतित हो गयी। जैसे लोह-खण्ड अग्नि के सम्पर्क से अग्निमय हो जाता है वैसे ही जड़ प्रकृति भी चिदाभास सम्भोग से चिन्मयी हो गयी। तात्पर्य यह कि प्रकृति से ब्रह्म का सम्मिलन होने पर महत्तत्त्वादि क्रम से विश्वप्रपन्च की उत्पत्ति हुई। अस्तु, गोपांगनाएँ कह रही हैं, हे श्यामसुन्दर! आप ही सम्पूर्ण सम्भोग के प्रवर्तक हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. श्री. भा. 11।3।39
  2. श्री. भ. गी. 14।3

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गोपी गीत
क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
1. भूमिका 1
2. प्रवेशिका 21
3. गोपी गीत 1 23
4 गोपी गीत 2 63
5. गोपी गीत 3 125
6. गोपी गीत 4 154
7. गोपी गीत 5 185
8. गोपी गीत 6 213
9. गोपी गीत 7 256
10. गोपी गीत 8 271
11. गोपी गीत 9 292
12. गोपी गीत 10 304
13. गोपी गीत 11 319
14. गोपी गीत 12 336
15. गोपी गीत 13 364
16. गोपी गीत 14 389
17. गोपी गीत 15 391
18. गोपी गीत 16 412
19. गोपी गीत 17 454
20. गोपी गीत 18 499
21. गोपी गीत 19 537

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