गोपी गीत -करपात्री महाराजगोपी गीत 18श्री हरि: अर्थात, हे श्यामसुन्दर! आपका यह प्राकट्य सम्पूर्ण व्रजवासी एवं वनवासी जनों के सब प्रकार के पापों का हनन करने वाला है; साथ ही, विश्व का पूर्ण मंगल करने वाला है। हमारा हृदय आपके सम्मिलन की लालसा से भरपूर है। हे मदन मोेहन! आप प्रकट होकर स्वजनों के हृदय-रोग को उपशमन करने वाली औषध हमको दें। सदा-सर्वदा सर्वव्याप्त परात्पर परब्रह्म प्रभु की प्रकट, अप्रकट एवं प्रकटा-प्रकट ये तीन प्रकार की लीलाएँ होती हैं। अप्रकट लीला चक्षु-गोचर नहीं होती-प्रकट लीला का प्रत्यक्ष अनुभव देवता एवं मानवों को होता है। प्रकटाप्रकट वह लीला है, जिसमें प्रकट के साथ ही अप्रकट दिव्य तत्त्व भी अभिव्यक्त रहता है। अनन्तानन्त ब्रह्माण्ड के प्रत्येक अणु-अणु, परमाणु-परमाणु में परात्पर प्रभु विद्यामान हैं- इस अखण्ड, अनन्त, निर्विकार परमतत्त्व का अपरोक्ष साक्षात्कार सर्वसाधारण के लिए सम्भव नहीं;
यदा-कदा ही सहस्रों-लक्षों में कोई एक ऐसा महापुरुष आविर्भूत होता है, जो इस दिव्य परमतत्त्व का अपरोक्ष अनुभव कर पाता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ मानस, बाल० 184/6