गोपी गीत -करपात्री महाराजगोपी गीत 17इन्दियाँ यदि विषयों मे चरती हों तो चरने दो, परन्तु जब मन भी विषयों का सेवन करती हुई इन्द्रियों का अनुसरण करने लगता है तो अनर्थ अवश्यम्भावी है क्योंकि ‘यन्मनोऽनु विधीयते’ इन्द्रियों का अनुसरण करने वाला मन तत्त्वातत्त्व, कर्तव्याकर्तव्य की अध्यवसायकारिणी निर्णयकारी प्रज्ञा को खींच लेता है। जैसे, महासमुद्र में वायु नाव को खींच लेती है, वैसे ही, विषयानुगामिनी इन्द्रियों का अनुसरण करने वाला मन निर्णयात्मिका प्रज्ञा को आकृष्ट कर लेता है। एतावता, इन्द्रियों को संयमित करना ही प्रथम कर्तव्य है। श्रुति कहती है ‘अति स्पृहा मनो मुह्यति नः अस्माकं’ नाना प्रकार के तर्क-वितर्क से, वेद-वेदांगों के महातात्पर्य का निर्धारण कर लेने पर भी ‘मनः अभिजयः’ मन मोह में पड़ जाता है। महाभारत में राजा नहुष की कथा प्रसिद्ध है। अजगर-योनि को छोड़कर पुनः मानव-रूप को प्राप्त होकर राजा नहुष ने युधिष्ठिर के प्रति महतोतिमहत् ज्ञान-विज्ञान का उपदेश किया; आश्चर्यचकित हो युधिष्ठिर ने राजा नहुष से प्रश्न किया, “हे महात्मन! यह ज्ञान-विज्ञान आपको इस समय सहसा प्राप्त हुआ है अथवा पहले भी था?” राजा नहुष ने उत्तर दिया, “हे युधिष्ठिर ! मेरा यह ज्ञान पुराना है, किन्तु विषयों के संग के कारण प्रमाद हुआ। फलतः प्रज्ञा के प्रावृत हो जाने से ही अजगर जैसी नीच योनि को प्राप्त हुआ। ” तात्पर्य यह कि श्रुतियों का उपदेश है कि प्राणीमात्र का कल्याण इसी में है कि वे अपने को लौकिक विषयों से संयमित रखते हुए अपनी-अपनी इष्ट-भावनानुसार भगवत्-चरणों को आश्रय ग्रहण करें। |