गोपी गीत -करपात्री महाराज पृ. 497

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गोपी गीत -करपात्री महाराज

गोपी गीत 17

‘दुष्कृतं हि मनुष्याणामन्नमाश्रित्य तिष्ठति।
यो यस्यान्नं समश्नाति स तस्याश्नाति दुष्कृतम।।’[1]

मनुष्यों के पाप, दुष्कृत अन्न के आश्रय से ही स्थिर होते हैं। अर्थात अन्न में ही टिकते हैं। एतावता, जो जिसका अन्न खाता है वह उसके दुष्कृत को भी ग्रहण करता इन्हीं प्रमादों के कारण मृत्यु ब्राह्मण को मारता है।

जब ब्राह्मण को भी मारता है तो शेष का तो कहना ही क्या? निर्णयपूर्वक श्रुतियों का अर्थ महातात्पर्य में निश्चित कर लेने पर पर भी प्रमादवश लौकिक कांचन-कामिनी-सुख वशीभूत होने पर परम-त्यागी विद्वान् में भी हृच्छयादह होता है। वीतरागी प्राणी भी यदि सुन्दरीजनों के ‘प्रहसितानन’, ‘प्रेम-वीक्षण’, ‘रहसि संविदं’ आदि विषयों का चिन्तन करता रहे तो अन्ततोगत्वा प्रमाद को प्राप्त होता है।

‘घ्यायतो विषयान् पुंसः संगस्तेषूपजायते।
संगात्संजायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते।।62।।
क्रीधाद भवति सम्मोहः सम्मोहात्स्मृतिविभ्रमः।
स्म्रतिभ्रंशाद बृद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति।।63।।’[2]

विषयों का ध्यान करने से, चिन्तन करने से, निश्चित ही, चिन्तक रागी हो जाता है। संग से, चिन्तन से काम उद्भूत होता है। काम में प्रतिघात होने से क्रोध जाग्रत् होता है; क्रोध उदित होने पर बृद्धि का नाश हो जाता है, यह प्रमाद ही मृत्यु है।

‘इन्द्रियाणां हि चरतां यन्मनोऽनु विधीयते।
तदस्य हरति प्रज्ञां वायुर्नावमिवाम्भसि।।’[3]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. भविष्यपुराण, उत्तरपर्व 169/36
  2. श्री० भ० गी० 2
  3. श्री० भ० गी० 2/67

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
1. भूमिका 1
2. प्रवेशिका 21
3. गोपी गीत 1 23
4 गोपी गीत 2 63
5. गोपी गीत 3 125
6. गोपी गीत 4 154
7. गोपी गीत 5 185
8. गोपी गीत 6 213
9. गोपी गीत 7 256
10. गोपी गीत 8 271
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12. गोपी गीत 10 304
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20. गोपी गीत 18 499
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