गोपी गीत -करपात्री महाराजगोपी गीत 17‘दुष्कृतं हि मनुष्याणामन्नमाश्रित्य तिष्ठति। मनुष्यों के पाप, दुष्कृत अन्न के आश्रय से ही स्थिर होते हैं। अर्थात अन्न में ही टिकते हैं। एतावता, जो जिसका अन्न खाता है वह उसके दुष्कृत को भी ग्रहण करता इन्हीं प्रमादों के कारण मृत्यु ब्राह्मण को मारता है। जब ब्राह्मण को भी मारता है तो शेष का तो कहना ही क्या? निर्णयपूर्वक श्रुतियों का अर्थ महातात्पर्य में निश्चित कर लेने पर पर भी प्रमादवश लौकिक कांचन-कामिनी-सुख वशीभूत होने पर परम-त्यागी विद्वान् में भी हृच्छयादह होता है। वीतरागी प्राणी भी यदि सुन्दरीजनों के ‘प्रहसितानन’, ‘प्रेम-वीक्षण’, ‘रहसि संविदं’ आदि विषयों का चिन्तन करता रहे तो अन्ततोगत्वा प्रमाद को प्राप्त होता है। ‘घ्यायतो विषयान् पुंसः संगस्तेषूपजायते। विषयों का ध्यान करने से, चिन्तन करने से, निश्चित ही, चिन्तक रागी हो जाता है। संग से, चिन्तन से काम उद्भूत होता है। काम में प्रतिघात होने से क्रोध जाग्रत् होता है; क्रोध उदित होने पर बृद्धि का नाश हो जाता है, यह प्रमाद ही मृत्यु है। ‘इन्द्रियाणां हि चरतां यन्मनोऽनु विधीयते। |