गोपी गीत -करपात्री महाराज पृ. 85

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गोपी गीत -करपात्री महाराज

गोपी गीत 2

श्रीमद्भागवत-शब्द हैं ‘कामस्तु वासुदेवांशः’[1] काम वासुदेव भगवान् श्रीकृष्ण का अंश है अर्थात् पुत्र है। भगवान् श्रीकृष्ण साक्षान्मन्मथ हैं। देश-काल वस्तु-कृत परिच्छेद-रहित तत्त्व ही अनन्त ब्रह्म है; ‘सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म’[2] तथापि जैसे स्वभावतः मधुर इक्षु-दण्ड के फल में लोकोत्तर माधुर्य अथवा मलयाचलोत्पन्न चन्दन-वृक्ष के पुष्प में लोकोत्तर सौरभ स्वाभाविक है वैसे ही तत्त्वज्ञ के अन्तःकरण पर अभिव्यक्त परब्रह्म के माधुर्यादि की अपेक्षा स्वयं अपनी ही परमाह्लादिनी लीला-शक्ति पर अभिव्यक्त भगवत्-स्वरूप के सौन्दर्य-माधुर्यादि अत्यन्त विलक्षण हैं। यही रस का विशेष उल्लास है।

जिस समय शुद्ध परब्रह्म अपनी अचिन्त्य लीला-शक्ति से कोटि-काम-कमनीय मनोहर श्रीकृष्णमूर्ति में प्रादुर्भूत हुआ उस समय प्रपंचातीत प्रत्यागभिन्न परमात्म-तत्त्व में निष्ठा रखने वाले मुनीन्द्र-योगीन्द्र के मन भी अनायास उस भगवन्मूर्ति की ओर आकृष्ट हो गये। जिस प्रकार सूर्य को दूरवीक्षण यन्त्र द्वारा देखने पर उसमें जो विचित्रता प्रतीत होती है वह केवल नेत्रों से देखने पर प्रतीत नहीं होती उसी प्रकार लीलाशक्त्युपहित सगुण ब्रह्म-दर्शन में जो आनन्दानुभव होता है वह अशेष-विशेष-शून्य शुद्ध परब्रह्म के साक्षात्कार में भी नहीं होता।

ब्रह्म जो निगम नेति कहि गावा, उभय वेष धरि की सोइ आवा।
सहज विराग रूप मन मोरा, थकित होत जिमि चन्द-चकोरा।
इनहिं विलोकत अति अनुरागा, बरबस ब्रह्म सुखहिं मन त्यागा।[3]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 10/55/1
  2. ते. उ. 2।1।1
  3. मानस, बा. का.

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गोपी गीत
क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
1. भूमिका 1
2. प्रवेशिका 21
3. गोपी गीत 1 23
4 गोपी गीत 2 63
5. गोपी गीत 3 125
6. गोपी गीत 4 154
7. गोपी गीत 5 185
8. गोपी गीत 6 213
9. गोपी गीत 7 256
10. गोपी गीत 8 271
11. गोपी गीत 9 292
12. गोपी गीत 10 304
13. गोपी गीत 11 319
14. गोपी गीत 12 336
15. गोपी गीत 13 364
16. गोपी गीत 14 389
17. गोपी गीत 15 391
18. गोपी गीत 16 412
19. गोपी गीत 17 454
20. गोपी गीत 18 499
21. गोपी गीत 19 537

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