गोपी गीत -करपात्री महाराजगोपी गीत 1प्रह्लाद अपने भगवान् को सर्व-व्यापी, सर्व-स्वरूप कह रहा है। प्रह्लाद का पिता हिरण्यकशिपु कुद्ध है; वह प्रमाण चाहता है। वादी के प्रति किसी पदार्थ की सिद्धि पारार्थानुगमन द्वारा प्रतिज्ञा, हेतु, उदाहरण, उपनय एवं निगमन के आधार पर की जा सकती है। भक्त प्रह्लाद ने प्रतिज्ञा की; भक्त-वत्सल भगवान् ने भक्तानुग्रहार्थ प्रकट होकर प्रमाण दिया, पाषाणखण्ड से जिसमें सूच्यग्र का भी प्रवेश सम्भव नहीं, अणु-परमाणु का प्रवेश सम्भव नहीं, सिंहाद्रिचूड़ामणि के रूप में आविर्भूत होकर भगवान् ने अपनी सर्व-व्यापकता एवं सर्व-स्वरूपता विश्वात्मता को सिद्ध कर दिया। एतावता आपके आविर्भाव से स्वभावतः उत्कर्ष को प्राप्त वेद-राशि अधिकाधिक उत्कर्ष को प्राप्त हो रही है। ‘वेदैश्च सर्वैरहमेव वेद्यः’[1] सम्पूर्ण वेदों का एकमात्र वेद्य, ‘सर्वे वेदा यत्पदमामनन्ति’ सब वेद परमतत्त्व का निरूपण करते हैं; ‘वेदान्तकृद्वेदविदेव चाहम्’ ‘किं विधत्ते किमाचष्टे किमनूद्य विकल्पयेत्। इत्यस्यां हृदयं लोके नान्यो मद्वेद कश्चन।।’[2] वेद किसका विधान करते हैं? वेद किसका अभिधान करते हैं? वेद किसका अनुवाद करते हैं? वेद किसका अवशेष करते हैं? ‘इत्यस्यां हृदयं लोके नान्यो मद्वेद्व कश्चन।’ इसका रहस्य भगवान् से भिन्न कोई नहीं जानता। अन्ततोगत्वा कहते हैं ‘मां विधत्तेऽभिधत्ते मां विकल्प्यापोह्यते त्वहम्। एतावान् सर्ववेदार्थत्’[3] वेद मेरा ही विधान एवं अभिधान करते हैं; साथ ही संपूर्ण अनात्म पदार्थों का अपोहन कर मेरा ही अवशेष रखते हैं, यही सम्पूर्ण वेदार्थ है। वेदार्थ-स्वरूप, वेद-वेद्य, वेदों के महातात्पर्य का विषयीभूत, सच्चिदानन्द, परात्पर, परब्रह्म ही श्रीकृष्ण-स्वरूप में ब्रजधाम में नन्दगेहिनी यशोदारानी के मंगलमय अंक में आविर्भूत हुआ। भक्त कहता है- ‘पुन्जीभूतं प्रेम गोपांगनानां, मूर्तीभूतं भागधेयं यदूनाम् |