गोपी गीत -करपात्री महाराजगोपी गीत 1अर्थात्, निगमावटी के भयंकर वीथी-जाल में, स्वर, क्रम, पदादि का निरन्तर अभ्यासरूप भ्रमण करने वाले परिश्रम-क्लान्त? नितान्त-खिन्न जनो! हमारे उपदेश को भी सुनते जाओ। इस दुर्गम वेदाटवी में अत्यन्त दुर्लभ संचारानन्तर आप लोगों को जो वेदार्थरूप फल प्राप्त होता है वही व्रजधाम में यशोदारानी के आँगन में उलूखल से बँधा हुआ है। श्रुतियों का वह गुप्त वित्त ही परमानन्द श्रीकृष्णचन्द्र स्वरूप में यशोदा के आँगन में धूलि-धूसरित होकर नृत्य कर रहा है। गोपांगनाओं का विशुद्ध प्रेम ही यदुवंशियों के लोकोत्तर परम सौभाग्य-मूर्ति श्रीकृष्णचन्द्र स्वरूप में प्रादुर्भूत हुआ है। निराकार, निर्विकार, परात्पर परब्रह्म ही श्यामरूप में प्रस्फुटित हो रहा है-जाओ, उसको पकड़ लो। ‘वेद-वेद्ये परे पुंसि जाते दशरथात्मजे। अर्थात् वेद-वेद्य, सच्चिदानन्दघन परब्रह्म का राघवेन्द्र रामचन्द्र स्वरूप में अवतरण हुआः साथ ही महर्षि वाल्मीकि के मुखारविन्द से रामायण-रूप में शतकोटि प्रविस्तर श्लोक-संयुक्त रामायण-रूप में वेदों का भी अवतरण हो गया। सिद्धान्त है कि देश-राशि एवं वेदार्थ का साथ ही साथ अवतरण होता है। एतावता, ‘अपौरुषेयत्वेन अपास्तसमस्तपुन्दोषस्य अधिष्ठानभूतस्य वेद-वेद्यस्य निगमागम महातात्पर्यविषयीभूतस्य ब्रह्मणस्तव जन्मना आविर्भावेन अधिकं यथास्यात तथास्य’ अपौरुषेय होने के कारण पुरुषाश्रित समस्त दोषों से सर्वथा मुक्त स्वभावतः उत्कर्ष को प्राप्त वेद-राशि वेदान्त-वेय वेद के महातात्पर्य विषयीभूत परात्पर परब्रह्म के प्राकट्य से प्रामाण्य-गुण-संयुक्त होकर पूर्वतो वा सर्वतो वा विशेष उत्कर्ष को प्राप्त हो रही है। पूर्वतो वा सर्वतो वा अधिकाधिक उत्कर्ष के कारण ही वेदों की अतुलित शोभा हो रही है। |