गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 93

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

प्रथम सर्ग
सामोद-दामोदर

अथ तृतीय सन्दर्भ
3. गीतम्

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वसन्त के समय में वसन्त-राग होता है। यति-ताल में लघु और द्रुत की त्रिपुटी रहती है। सखी इस पद से सुहृदत्व सूचित हो रहा है। सरसवसन्ते सरस विशेषण के द्वारा वसन्त ऋतु की रसमयता और आस्वाद्यता सूचित की गई है।

विरहि जनस्य दुरन्ते- विरहीजन इस सरस वसन्त में बड़े दु:ख के साथ अपने समय को बिताते हैं। श्रीहरि अपने मधुर लीलाओं के द्वारा सबके चित्त, मन और प्राणों का हरण कर लेते हैं और फिर उनका विरह अतिशय कष्टदायी और असहनीय होता है। ललित लवंगलता परिशीलन कोमल मलय समीरे- श्रीकृष्ण जहाँ विराजमान हैं, उस स्थान की विशेषता बतलाते हुए कहते हैं कि मनोहर लवंगलताओं के संस्पर्श से यहाँ की मलय वायु मृदुल बन गयी है, यों तो मलय समीर शीतल, मन्द और सुगन्धित होता है, किन्तु लवंगलताओं के संस्पर्श से वह और भी कोमल और सुगन्धित बन गया है।

मधुकर-निकर-करम्बित-कोकिल-कूजित-कुंज-कुटीरे– इस पद का विग्रह है मधुकराणां यो हि निकर स्तेन करम्बिता: मिश्रिता: ये कोकिला स्तै: कूजित: य: कुंज कुटीर: तत्र। अर्थात नृत्य स्थान अमर समुदाय एवं कोकिला समूह से कूजित कुंज की कुटीर है।

इस प्रकार किसी सहचरी के द्वारा विरह उत्कण्ठिता श्रीराधा के समीप वसन्तकालीन वृन्दावन की शोभा का वर्णन किया गया है। मनोहर लवंग-लता के द्वारा वृक्ष का आलिंगन किये जाने से, मलय पवन के संस्पर्श से, पुष्पों की सुगन्ध से, यमुना जल की शीतलता से, लताओं की कमनीयता से, नारियों के सुकोमल अंग के स्पर्श से यह वसन्त, कान्त के मिलन में जितना सुखदायी होता है, विरह में उतना ही दु:खदायी भी होता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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गीत गोविन्द -श्रील जयदेव गोस्वामी
सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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