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श्रीगीतगोविन्दम् -श्रील जयदेव गोस्वामी
प्रथम सर्ग
सामोद-दामोदर
अथ द्वितीय सन्दर्भ
2. गीतम्
अभिनव-जलधर-सुन्दर! धृतमन्दर! अनुवाद- हे नवीन जलधर के समान वर्ण वाले श्यामसुन्दर! हे मन्दराचल को धारण करने वाले! श्रीराधारूप महालक्ष्मी के मुखचन्द्र पर आसक्त रहने वाले चकोर-स्वरूप! हे हरे! हे देव! आपकी जय हो! जय हो ॥7॥ पद्यानुवाद बालबोधिनी- प्रस्तुत पद्य में धीरललित नायक का मुख्यत्व प्रतिपादन करते हुए भगवान् के विविध अवतारों की लीलाओं का प्रदर्शन किया है। अभिनव-जलधर-सुन्दर श्रीभगवान् अभिनव सुन्दर हैं, उनका दिव्यातिदिव्य मंगलमय विग्रह सजल मेघ के समान मनोहर है। धृतमन्दर क्षीरसागर के मन्थन काल में आपने मन्दराचल को धारण किया था। जब मन्दराचल ठहर नहीं रहा था, तब आप कच्छप बन गये थे अथवा श्रीराधा जी के हृदय देश को धारण करते हैं। दूसरे रूप में देवताओं के साथ समुद्र का मन्थन करते हैं। श्रीमुखचन्द्र चकोर श्रीराधा जी का मुखकमल भगवान् को आट्टादित करते रहने के कारण विधु सरीखा है। चकोर जैसे चन्द्रमा की ओर अस्पृह रूप में निर्निमेष नेत्रों से देखा करता है, उसी प्रकार श्रीभगवान् भी श्रीराधा जी के मुख की मनोज्ञता को देखकर हर्षातिरेकता का अनुभव करते रहते हैं। हे देव! हे हरे! आपकी जय हो!! नवजलधर सुन्दर पद से भगवान् का नवतारुण्य द्योतित होता है। चकोर पद से उनकी प्रेयसीवश्यता सूचित होती है। धृतमन्दर पद से श्रीराधा जी के कुचयुगल को धारण करते हैं। हे प्रभो! आपकी जय हो ॥7॥
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ अन्वय- [अधुना धीरललितमुख्यत्वप्रतिपादनाय अजित-रूपत्वेन सम्पुटितमिव पुनस्तमेवाह] हे अभिनव जलधर-सुन्दर नवजलधररूचे हे धृतमन्दर (मन्दरधारिन्) [आभ्यां नवतरुणत्वं तदधिगम:]; हे श्रीमुखचन्द्रचकोर (श्रिया: लक्ष्म्या: मुखमेव चन्द्र: तत्र चकोरइव तत्सम्बुद्धौ कमलावदनचन्द्रसुधापायिन् इत्यर्थ:) अनेन प्रेयसीवशत्वं सूचितम् हे देव, हे हरे, त्वं जय जय ॥7॥
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