गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 79

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

प्रथम सर्ग
सामोद-दामोदर

अथ द्वितीय सन्दर्भ
2. गीतम्

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अभिनव-जलधर-सुन्दर! धृतमन्दर!
श्रीमुखचन्द्रचकोर!
जय जय देव हरे॥7॥[1]

अनुवाद- हे नवीन जलधर के समान वर्ण वाले श्यामसुन्दर! हे मन्दराचल को धारण करने वाले! श्रीराधारूप महालक्ष्मी के मुखचन्द्र पर आसक्त रहने वाले चकोर-स्वरूप! हे हरे! हे देव! आपकी जय हो! जय हो ॥7॥

पद्यानुवाद
अभिनव जलधर सुन्दर धृत मन्दर हे।
श्रीमुख चन्द्र चकोर, जय जय देव हरे॥

बालबोधिनी- प्रस्तुत पद्य में धीरललित नायक का मुख्यत्व प्रतिपादन करते हुए भगवान् के विविध अवतारों की लीलाओं का प्रदर्शन किया है। अभिनव-जलधर-सुन्दर श्रीभगवान् अभिनव सुन्दर हैं, उनका दिव्यातिदिव्य मंगलमय विग्रह सजल मेघ के समान मनोहर है। धृतमन्दर क्षीरसागर के मन्थन काल में आपने मन्दराचल को धारण किया था। जब मन्दराचल ठहर नहीं रहा था, तब आप कच्छप बन गये थे अथवा श्रीराधा जी के हृदय देश को धारण करते हैं। दूसरे रूप में देवताओं के साथ समुद्र का मन्थन करते हैं। श्रीमुखचन्द्र चकोर श्रीराधा जी का मुखकमल भगवान् को आट्टादित करते रहने के कारण विधु सरीखा है। चकोर जैसे चन्द्रमा की ओर अस्पृह रूप में निर्निमेष नेत्रों से देखा करता है, उसी प्रकार श्रीभगवान् भी श्रीराधा जी के मुख की मनोज्ञता को देखकर हर्षातिरेकता का अनुभव करते रहते हैं। हे देव! हे हरे! आपकी जय हो!! नवजलधर सुन्दर पद से भगवान् का नवतारुण्य द्योतित होता है। चकोर पद से उनकी प्रेयसीवश्यता सूचित होती है। धृतमन्दर पद से श्रीराधा जी के कुचयुगल को धारण करते हैं। हे प्रभो! आपकी जय हो ॥7॥


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अन्वय- [अधुना धीरललितमुख्यत्वप्रतिपादनाय अजित-रूपत्वेन सम्पुटितमिव पुनस्तमेवाह] हे अभिनव जलधर-सुन्दर नवजलधररूचे हे धृतमन्दर (मन्दरधारिन्) [आभ्यां नवतरुणत्वं तदधिगम:]; हे श्रीमुखचन्द्रचकोर (श्रिया: लक्ष्म्या: मुखमेव चन्द्र: तत्र चकोरइव तत्सम्बुद्धौ कमलावदनचन्द्रसुधापायिन् इत्यर्थ:) अनेन प्रेयसीवशत्वं सूचितम् हे देव, हे हरे, त्वं जय जय ॥7॥

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सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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