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श्रीगीतगोविन्दम् -श्रील जयदेव गोस्वामी
द्वादश: सर्ग:
सुप्रीत-पीताम्बर:
चतुर्विंश: सन्दर्भ:
24. गीतम्
मृगमद-रस-वलितं ललितं कुरु तिलक मलिक-रजनीकरे। अनुवाद- हे कमललोचन! रति के श्रम से उत्पन्न स्वेदबिन्दुओं से युक्त, मृग-लाञ्छन की शोभा धारण करने वाले अर्द्ध-चन्द्र के समान मेरे भाल पर मनोहर कस्तूरी से सुन्दर तिलक रचना कीजिए। पद्यानुवाद बालबोधिनी- श्रीराधा श्रीकृष्ण से कहती हैं हे कमलवदन! हे हृदयानन! मेरा ललाट चन्द्रमा के समान है, आप उस पर ललित मनोहर तिलक रचना कीजिए। इस तिलक को कस्तूरी मृगमद रस से ही रचिये। जिस प्रकार अष्टमी का अर्द्धचन्द्र कलंक रेखाओं से सुशोभित होता है, उसी प्रकार मेरे मुख पर भी मृगलांछन के समान मेरे विशाल भाल पर तिलक स्थापित कीजिए। रति-काल में प्रवाहित होने वाले श्रम-जलकण भी अब शुष्क-शान्त हो गये हैं। यहाँ इस पद से पुन: उद्दीपन विभाव भी सूचित हो रहा है। हे कृष्ण, आप ही तो मेरे सौभाग्य के केन्द्रबिन्दु हैं, आप ही मेरे ललाट के तिलक हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ अन्वय- हे कमलानन (सरोजवदन) विश्रमित-श्रम-शीकरे (विश्रमिता अपगता श्रमशीकरा: श्रमाम्बुकणा: यत्र तादृशे) अलिक-रजनीकरे (अलिकं ललाटं रजनीकर: चन्द्रइव तस्मिन्) मृगमद-रसेन (कस्तूरिका-द्रवेण) वलितं (रचितं) अतएव विहित-कलंक-कलं (विहिता कृता कलप्रस्य कला रेखा येन तादृशं ललाटस्य बालचन्द्रत्वेन मृगमदतिलकस्य च कलंक-कलात्वेन निरूपितं) तिलकं ललितं (सुन्दरं यथा तथा) कुरु (रचय) ॥5॥
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