गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 489

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

द्वादश: सर्ग:
सुप्रीत-पीताम्बर:

त्रयोविंश: सन्दर्भ:

23. गीतम्

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बालबोधिनी- कवि कहते हैं कि रतिक्रीड़ा में अत्यधिक हर्षोत्कर्ष प्राप्त कर लेने के कारण आलिंगन, चुम्बन आदि से विमुक्त होकर श्रीराधा एक प्रकार से परमानन्द में डूब गयीं। कामावेश के वशीभूत उनके शरीर ने अब किसी भी प्रकार के व्यापार को सह सकने में असमर्थता प्रकट कर दी। रतिकाल में उस मृगलोचना के पयोधर प्रगाढ़ आलिंगन के कारण पुलकरहित कठिन और कुछ झुके हुए हो गये। इस प्रकार सुरतान्त में कान्त श्रीकृष्ण उनके मुखको देखकर पुनरालिंगन के द्वारा अधर-पान की स्पृहा करने लगे। नेत्र कुछ मुकुलित हो गये। विलास-क्रीड़ा के समय उनके द्वारा बार-बार मनोहर सीत्कार करने के कारण निकलने वाली अव्यक्त एवं आकुल काकु ध्वनि प्रस्फुटित हुईं और दाँतों की किरणों से अधर-पुट धुल गये। श्रीराधा के इस प्रकार के मुखमण्डल को कोई सुकृतिवान ही देख सकता है। यह सौभाग्य या तो श्रीकृष्ण को अथवा उनकी मञ्जरियों को ही प्राप्त हो सकता है।

प्रस्तुत पद में शार्दूलविक्रीड़ित छंद, जाति अलंकार, पाञ्चाली रीति, मागधी गीति, भारती वृत्ति और स्थित लययुक्त गान है। श्रीराधा श्रीकृष्ण के बीच प्रगाढ़ आलिंगन को 'वृक्षाधिरूढ़कम' आलिंगन कहा गया है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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गीत गोविन्द -श्रील जयदेव गोस्वामी
सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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