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श्रीगीतगोविन्दम् -श्रील जयदेव गोस्वामी
द्वादश: सर्ग:
सुप्रीत-पीताम्बर:
त्रयोविंश: सन्दर्भ:
23. गीतम्
अधर-सुधारसमुपनय भामिनि! जीवय मृतमिव दासम्। अनुवाद- हे भामिनि! तुममें ही निविष्ट मन वाले, विरहानल से दग्ध, विलासरहित, मृतवत् मुझ दास को अपनी अधर-सुधा-रस का पान कराकर जीवित करो।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ अन्वय- [अन्यथा मे दशमी दशा स्यादित्यत आह]- अयि भामिनि (अभिमानवति) [वक्रदृष्ट्या अवलोकनात् भामिनीत्युक्तम] अधर-सुधा-रसम (अधरामृतम) उपनय (देहि); त्वयि विनिहितमनसं (समर्पितचित्तम अनन्यगतिकमित्यर्थ:) विरहानल-दग्धवपुषम [अतएव] अविलासं (विलासरहितं निरानन्दमिति यावत्) मृतमिव (मृतप्रायं) दासं (किप्ररं) जीवय (गतजीवितमिव माम अमृतं दत्त्वा सजीवं कुरु इति भाव:) ॥5॥
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