गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 470

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

द्वादश: सर्ग:
सुप्रीत-पीताम्बर:

त्रयोविंश: सन्दर्भ:

23. गीतम्

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अधर-सुधारसमुपनय भामिनि! जीवय मृतमिव दासम्।
त्वयि विनिहित-मनसं विरहानलदग्धवपुषमविलासम्॥
क्षणमधुना.... ॥5॥ [1]

अनुवाद- हे भामिनि! तुममें ही निविष्ट मन वाले, विरहानल से दग्ध, विलासरहित, मृतवत् मुझ दास को अपनी अधर-सुधा-रस का पान कराकर जीवित करो।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अन्वय- [अन्यथा मे दशमी दशा स्यादित्यत आह]- अयि भामिनि (अभिमानवति) [वक्रदृष्ट्या अवलोकनात् भामिनीत्युक्तम] अधर-सुधा-रसम (अधरामृतम) उपनय (देहि); त्वयि विनिहितमनसं (समर्पितचित्तम अनन्यगतिकमित्यर्थ:) विरहानल-दग्धवपुषम [अतएव] अविलासं (विलासरहितं निरानन्दमिति यावत्) मृतमिव (मृतप्रायं) दासं (किप्ररं) जीवय (गतजीवितमिव माम अमृतं दत्त्वा सजीवं कुरु इति भाव:) ॥5॥

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सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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