गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 468

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

द्वादश: सर्ग:
सुप्रीत-पीताम्बर:

त्रयोविंश: सन्दर्भ:

23. गीतम्

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प्रिय-परिरम्भण-रभस-वलितमिव पुलकितमति दुरवापम्।
मदुरसि कुचकलशं विनिवेशय शोषय मनसिज-तापम्॥
क्षणमधुना.... ॥4॥[1]

अनुवाद- हे प्रिये! प्रियतम के परिरम्भण के लिए सन्नद्ध तथा हर्ष-रोमांच से पुलकित, दुष्प्राप्य इन कुच-कलशों को मेरे वक्ष:स्थल पर रखकर मेरे मनसिज ताप को दूर कीजिए।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अन्वय- [ततो वक्त्रमवलोकयन्तीं प्रति व्याकुल सत्राह]- [अयि प्रियतमे] मदुरसि (मम उरसि वक्षोदेशे) प्रिय-परिरम्भण-रभस-वलितमिव (प्रियस्य कान्तस्य मम परिरम्भणाय आलिंगनाय यो रभस: औत्सुक्यं तेन आलिंगनावेशेन इत्यर्थ: वलितम उच्छलितमिव) पुलकितं (रोमाञ्चितं) [कस्यचित्र वृथार्त्त्यावलोकात् करुण: तदार्त्तिशमनाय पुलकितो भवति तद्वदयमपीत्यर्थ:] अतिदुरवापं (अतिदुर्लभं) कुचकलसं (स्तनकुम्भं) विनिवेशय (स्थापय) [दुरापस्य हृद्येव धारण-योग्यत्वादिति भाव:]; [तेनच मम] मनसिज-तापं (मदनसन्तापं) शेषय (खण्डय, निवारय इत्यर्थ:) [रसायनार्पणात् तापोपशान्तिर्भवत्येवेत्यर्थ:] ॥4॥

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सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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