गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 465

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

द्वादश: सर्ग:
सुप्रीत-पीताम्बर:

त्रयोविंश: सन्दर्भ:

23. गीतम्

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कर-कमलेन करोमि चरण-महमागमितासि विदूरम्।
क्षणमुपकुरु शयनोपरि मामिव नूपुरमनुगतिशूरम्॥
क्षणमधुना.... ॥2॥[1]

अनुवाद- हे प्रिये! आप बहुत दूर से चलकर आयी हैं। मैं अपने कर-कमलों से आपके चरणारविन्दों का संवाहन करता हूँ। अपने नूपुर का अनुसरण करने वाले मुझ शूर पर भी तुम इस शय्या के ऊपर क्षणभर उपकार करो।

पद्यानुवाद
दूर देश से थक आई हो, कर कमलों से अपने
पद सहलाकर श्रम हर लूँगा (क्यों विहँसी चल नयने?)
दूँ उतार पायल, क्षण भर तो शैया पर ढिग मेरे।
बैठो प्रिय! बतरस से हिय हो शीतल आज सबेरे॥

बालबोधिनी- श्रीकृष्ण कहते हैं राधे! तुम बड़ी दूर से चलकर आई हो, आओ, मैं अपने हाथों से तुम्हारे चरण-कमलों को दबा दूँ, मैं इन चरणों की पूजा करता हूँ। इन नूपुरों पर उपकार कर जैसे तुम इनको धारण करती हो, उसी प्रकार मुझ पर भी उपकार करो इस शय्या पर। जिस प्रकार ये नूपुर सदा-सर्वदा तुम्हारा अनुसरण करते हैं, उसी प्रकार मैं भी नित्य-निरन्तर तुम्हारा अनुसरण करता हूँ। अत: तुम्हारे द्वारा उपकृत किये जाने की योग्यता मुझमें है। मैं भी तुम्हारे अनुग्रह का पात्र हूँ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अन्वय- [तदारोहणेन कथं त्वदनुभजनं स्यादित्यत आह]-[अयि प्रिये] [अहम् आत्मन:] करकमलेन [तव] चरणमहं (चरणयो: महं पूजां) करोमि (संवाहयामीत्यर्थ:) [यत:] [त्वं] विदूरम् (अतिदूरम्) आगमितासि (आनीतासि) [मयेति शेष:]; [दूरागतस्य पादसंवाहनमुचितमितिभाव:]; [तदर्थं] क्षणं शयनोपरि (शय्यायां) अनुगतिशूरं (अनुगतौ अनुगमने सेवायां शूरं निपुणं) नूपुरमिव माम् उपकुरु (अंगीकुरु) [अनुगतस्य पाद-लग्नस्य उपकाराचरणं युक्तमेवेत्यर्थ:] ॥2॥

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सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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