गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 463

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

द्वादश: सर्ग:
सुप्रीत-पीताम्बर:

त्रयोविंश: सन्दर्भ:

23. गीतम्

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विभासरागैकतालीतालाभ्यां गीयते ॥प्रबन्ध: ॥23॥

गीतगोविन्द काव्य के इस 23वें प्रबन्ध को विलास राग तथा एकताली ताल से गाया जाता है।

किसलय-शयन-तले कुरु कामिनि! चरण-नलिन-विनिवेशम्।
तव पद-पल्लव-वैरि पराभवमिदमनुभवतु सुवेशम् ॥1॥
क्षणमधुना नारायणमनुगतमनुसर राधिके! ध्रुवपदम्[1]


अनुवाद- हे कामिनि! किसलयों से बनी शय्या पर अपने चरण-नलिन को न्यस्त करो। तुम्हारे पद-पल्लवों की वैरिणी यह शय्या अब पराभव का अनुभव करे। हे राधिके! मुहूर्त्त-मात्र के लिए आप मुझ नारायण का अनुसरण करें।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अन्वय- अयि कामिनि [मत्पूजा त्वय्यस्तीति कामिनीशब्द: प्रयुक्त:] किशलय-शयन-तले (नवपल्लवशय्यायां) चरण-नलिन-विनिवेशं (चरण-कमलयोर्विन्यासं) कुरु [पूजायां प्रथमा मासनम् अंगीकुरु] इदं (तरुण-पल्लवशयनं) सुवेशं (तत्तद्रगुणै: शोभमानमपि) तव पद-पल्लव-वैरि (पदपल्लवस्य शत्रुभूतम् अरुणतादिभि: गुणै: साम्यकाङ्क्षया वैरित्वं ज्ञेयं) [अत: अस्य शिरसि तव पदपल्लवस्य अवस्थापनात्] पराभवम् अनुभवतु, अयि राधिके अधुना नारायणं (नारीणां समूहो नारं नाराणाम् अयनम् स्त्रीसमूहानाम् आश्रयं) अनुगतं (त्वदेकपरं) [बहुवल्लभमपि त्वदेकनिष्ठमिति भाव:]; [माम्] क्षणम् अनुभज (सेवस्व) ॥1॥

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सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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