गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 405

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

एकादश: सर्ग:
सामोद-दामोदर:

विंश: सन्दर्भ:

20. गीतम्

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अनिल-तरल-किसलय-निकरेण करेण लतानिकुरम्बम्।
प्रेरणमिव करभोरु! करोति गतिं प्रति मुञ्च विलम्बम्
मुग्धे.... ॥4॥[1]

अनुवाद- हे करिशुण्ड सम रमणीय उरु युगल शालिनि! पवन वेग से चञ्चल लता-समुदाय नये-नये पल्लवों द्वारा मानो तुम्हें संकेत करते हुए प्रेरित कर रहा है। अत: हे करभोरु! अब जाने में विलम्ब मत करो।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अन्वय- [मद्वचनमनुमोदमाना लतासन्ततिरपि त्वां प्रेरयतीत्याह]- अयि करभोरु ("मणिबन्धादाकनिष्ठं करस्य करभो बहि:" इति अमर-शासनात् करभ: कनिष्ठांगुलितो मणिबन्धपर्यन्त: करस्य बहिर्भाग: तद्वत्, यद्वा करिशावक-शुण्डवत् ऊरु यस्या: तत्सम्बुद्धौ) लतानिकुरम्बं (लतासमूह:) [अपि] अनिलतरल-किशलयनिकरेण (अनिलेन वायुना तरल: चञ्चल: य: किशलयनिकर: तद्रूपेण) करेण प्रेरणमिव करोति; [तस्मात्] गतिं (गमनं) प्रति विलम्बं मुञ्च अचेतनानुकूल्येनापि त्वच्चेतो न द्रवतीत्यभिप्राय:। वस्तुतस्तु उद्दीपनमेवैतत् सर्वम्] ॥4॥

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सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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