गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 3

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

श्रीश्रीगुरु-गौरांगौ जयत:

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प्रस्तावना

(ख)

अर्थात उन्होंने कहा है कि श्रीहरि की सुखद स्मृति की यदि मन में इच्छा हो अथवा यदि तुम हरि का प्रीति पूर्वक स्मरण करना चाहते हो अथवा श्रीहरि के विलास-नैपुण्य को जानने का हृदय में कौतूहल हो, तो तुम इस ग्रन्थ का पाठ करो, अन्यथा तुम इस ग्रन्थ का पाठ मत करो। मेरी यह कोमल कान्त पदावली तुम्हारे निकट जितनी भी मधुर और कोमल हो, तुम अनधिकारी इसका पाठ मत करो। यदि तुम्हारे हृदय में कौतूहल हो और उनके रासविलास को जानने की इच्छा हो, तो मेरी कोमलकान्त पदावली तुम्हारे निकट बहुत ही मधुर, कोमल और अत्यन्त कमनीय विवेचित होगी।

इतना स्पष्ट करने के बाद भी अनधिकारियों के निकट श्रीजयदेव कवि पार नहीं पा सके। उनके मधुर एवं अलंकृत भाषा के आकर्षण के कारण वे इस ग्रन्थ का पाठ करते हैं और अन्त में उसका यथार्थ भावार्थ या मर्म ग्रहण करने में असमर्थ होकर अभद्र की भाँति कविकुल चूड़ामणि श्रीजयदेव को ही गाली गलौज करते हैं। ऐसा तो होगा ही। वे तो श्रीहरि को नहीं पहचानते, वे हरि की मधुर स्मृति के निकट भी जाना नहीं चाहते। वे केवल स्वयं को समझते हैं। वह भी देहेन्द्रियात्मक स्वयं को समझते हैं। वे अपने शरीर और इन्द्रियों को सुखकर समझकर उसे ही चरम सुख मानते हैं। वैसे काम के किंकर-जन श्रीजयदेव गोस्वामी द्वारा वर्णित अप्राकृत प्रेम के व्यापार को क्या समझेंगे? इसलिए परम पूज्यनीय श्रीकृष्णदास कविराज गोस्वामी ने श्रीचैतन्यचरितामृत में कहा है-

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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गीत गोविन्द -श्रील जयदेव गोस्वामी
सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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