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श्रीगीतगोविन्दम् -श्रील जयदेव गोस्वामी
चतुर्थ: सर्ग:
स्निग्ध-मधुसूदन:
अथ नवम: सन्दर्भ
स्मरातुरां दैवत-वैद्य-हृद्य! त्वदंगसंगामृतमात्रसाध्यम्। अनुवाद- देववैद्य अश्विनीकुमार से भी सुनिपुण सुचिकित्सक श्रीकृष्ण! हे उपेन्द्र! अनगंताप से पीड़िता श्रीराधा एकमात्र आपके अंग-संयोग रूप औषधामृत से ही जीवन धारण कर सकती हैं। उस दु:साध्य रोग वाली कामातुर श्रीराधा को इस मुमुर्षु दशा में यदि आप बाधा-रहित नहीं बनाते हैं तो निश्चय ही आप वज्र से भी कठोर समझे जायेंगे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ अन्वय- हे दैवतवैद्यहृद्य, (देववैद्यादपि हृदयंग़म! वैद्याभ्यास-कृत्यनिपुण इति वा) त्वदंगसंगामृतमात्रसाध्यां (तव अंगसंग एव अमृतं तन्मात्रेण साध्यां प्रतिकार्यां) स्मरातुरां (कामार्त्तां) राधां [यदि] विमुक्त-वाधां (रोगमुक्तां) न कुरुष्वे (तर्हि) हे उपेन्द्र, त्वं वज्रादपि दारुण: (कठोर:) असि (भवसि) [यद्वात्वम् उपेन्द्रवज्रादपि इन्द्रवज्रात् उप अधिकम् उपेन्द्रवज्रं तदपि चेद्भवेत् तस्मादपि, दारुण: असि]। [अंगसंग-मात्र-साध्य-कर्माकरणेन काठिन्यमेव ते पर्यवसितमित्यर्थ:] ॥2॥
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