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श्रीवृन्दावन महिमामृतम् -श्यामदास
अष्टमं शतकम्
मूल-मूत्र-श्लेष्मा-पूषादिपूर्ण, स्नायु, मांस अस्थि, मज्जा, रक्तादियुक्त त्वचा से ढका हुआ, स्वार्थ, निर्मलकारी, ब्रह्मादिक से भी अजेय ‘‘युवति’’ नामक एक स्वीय संमोहजाल है, इसे दूर से त्याग करके परम पुरुषार्थ श्रीवृन्दावन का आश्रय कर।।44।।
यदि मन को सर्वात्मा और स्वार्थीं में विघ्नकारी नारी के भावाधीन तू देखता है, तो बलपूर्वक उठती हुई दुष्ट इन्द्रियों को क्रोध रूप दण्ड से दमन कर। इसी प्रकार भूषादि बहुत दूर फैंक, विघ्नाभास आने पर उसे तृणवत् जानकर श्रीवृन्दावन में वास कर।।45।। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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