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श्रीवृन्दावन महिमामृतम् -श्यामदास
सप्तमं शतकम्
निखिल अस्तुएं दोनों की महा-मोहिनी दिव्य अनंग-कांति में लीन हो रही हैं, एवं सर्व लावण्यसार के द्वारा उनके अद्भुत दिव्य अंग सुवलित हैं।।83।।
दोनों ही असमोर्द्ध महाश्चर्य-सौन्दर्य के अपार सागर हैं एवं एक दूसरे के प्रति अति असीम भाव से वृद्धिशील प्रेमसागर में निमग्न हैं।।84।।
दोनों का प्रति अंग नित्य उन्मत-अनंगरस में घूर्णमान है, एवं रत्यावेश-वश सर्वांगों में उच्च पुलकावलि हो रही है।।85।। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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