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श्रीवृन्दावन महिमामृतम् -श्यामदास
तृतीय शतकम्
नाना दिव्य विचित्रवर्ण देह, दिव्य अंगराग, माल्यवेशादि के द्वारा, दिव्य किशोर मोहनकारी वयस की शोभा- चमत्कारिता के द्वारा, दिव्य नाना प्रकार की विद्याओं के अति कुशलता जनित आनन्त के द्वारा निज प्रियतम दम्पत्ति के प्रेम में विमुग्ध श्रीराधा की सखी मण्डली से शोभित, (उस श्रीवृन्दावन में.....और फिर) अति ललित-।।107।।
उन सखियों का कटिदेश अति सुचारु है, त्रिवलयुक्त क्षीण उदर है, मोहनाकार सुन्दर स्तनों पर काञ्चुलि के ऊपर पर मुक्तावली की शोभा है, कुण्डलों की चमक से उनके कपोल प्रकाशित हो रहे हैं, सुन्दर नासिका के अग्रभाग में स्वर्णरत्न जटित सुन्दर मुक्ता डोलायमान है, उनकी छटा जगत को मोहन करने वाली।।108।
वे प्रियतम युगलकिशोर के महाप्रसाद, वस्त्र, वेश, माल्यादि धारण कर उज्ज्वल हो रही हैं, तप्त स्वर्णवत् सुगौर मोहन शरीर की कान्ति से जगत् को पूर्ण कर रही हैं, श्रीराधाकृष्ण-पदारविन्द में परम प्रेम ही उनकी एकमात्र जीवनमूरी एवं वे अपनी अपनी अधिकृत कलाविद्या के द्वारा प्राणप्रियतम्-युगल को प्रीति विधान करती हैं।।109।। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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